कृष्ण जी और कर्ण संवाद

एक बार कृष्ण जी और कर्ण संवाद कर रहे थे। संवाद में कर्ण ने कृष्ण जी से बोला कि मेरा जन्म होते ही माता कुंती ने मेरा त्याग कर दिए। गुरु द्रोणाचार्य ने मुझे शिक्षा नहीं दी क्योंकि मैं क्षत्रिय पुत्र नहीं था।
परशुराम जी ने मुझे सिखाया परंतु मुझे श्राप दे दिया कि जब मुझे इस शिक्षा की सबसे अधिक जरूरत होगी, तब यह काम नहीं आएगी । क्योंकि परशुराम जी के अनुसार मै क्षत्रिय नहीं था।
द्रौपदी ने स्वयंवर में मेरा अपमान किया क्योंकि मैं एक सूत पुत्र था।
अभ्यास के दौरान संयोग से मेरा बाण गाय को लग गया था। लेकिन उसके स्वामी ने मुझे श्राप दे दिया कि जिस प्रकार मैने एक असहाय पशु को मारा है, उसी प्रकार जिस दिन मैं सबसे अधिक असहाय रहूंगा और मेरा ध्यान शत्रु पर नहीं रहेगा, मैं भी मारा जाऊंगा।
माता कुंती ने अपने पुत्रों को बचाने के लिए अंतिम समय में बताया कि पांडू पुत्र मेरे भाई थे।
मुझे जो कुछ भी प्राप्त हुआ है वह दुर्योधन से ही हुआ है, मैं क्यों उनकी तरफ से युद्ध न करूं?
तब कृष्ण जी ने उत्तर दिया कि मेरा जन्म कारावास में हुआ था। जन्म से पहले ही मेरे मामा कंस मेरी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। मेरा जन्म होते ही मुझे माता पिता से अलग कर दिया गया। मेरा बचपन गाय, गौशलों में बीता। तुम्हारा बचपन रथ, घोड़े और धनुष की के बीच में बीता।
मुझे कोई सेना नहीं, कोई शिक्षा नहीं मिली। सोलह वर्ष की उमर में कहीं जाकर मुझे ऋषि सांंदीपन के गुरुकुल में शिक्षा मिली।
मैं जिसे चाहता था वह मुझे नहीं मिली। मुझे उन कन्याओं से विवाह करना पड़ा जिन्हें मै राक्षस से बचा कर लाया या जिन्हें मेरी चाहत थी।
जरासंध से मेरे समाज को बचाने के लिए मुझे पूरा यदुवंश यमुना नदी से हटा कर समुद्र के किनारे बसाना पड़ा।
रण से पलायन करने के कारण मुझे रणछोड़ भी कहा गया।
कृष्ण जी कहते हैं कि कर्ण चुनौतियां तो सभी के जीवन में रहती है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि हम धर्म का पालन न करें।
चाहे हमें जीवन में हमारे चाहत की चीज़े न मिले, महत्व इस बात का है कि उस समय हम कैसा व्यवहार करते हैं।
कोई भी समस्या का यह अर्थ नहीं की आप अधर्म के पथ पर चले।

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